सातवाहन वंश ‘‘ आंध्र शासक ’’
( ई0पू0 228/60 से
ई0 220 तक )
आरंभिक इतिहास : सर्वप्रथम आंध्र जाति का
उल्लेख ई0पू0
800
में ऐतरेय ब्राम्हण से प्राप्त होता है। इसमें इसे आर्य तथा अनार्यों के मिश्रण से
उत्पन्न संकर जाति कहा गया है। इन्होंने पांच सौ वर्षों में सशक्त सेना बना डाली
जिसका वर्णन प्लिनी ने इंडिका स्त्रोत से किया है। महाभारत तथा मनुस्मृति में
इन्हें निम्नकोटि का कहा गया है। सातवाहन ‘‘ शालिवाहन ’’ शब्द का अपभ्रंश है। इस
वंश के साम्राज्य का संस्थापक सिमुक को माना जाता है। नासिक के लेख से इनके
ब्राम्हण होने का ज्ञान होता है। प्रारंभ में ये दक्षिण के निवासी थे , इनका मूल स्थान कर्नाटक के
बेल्लारी के निकट ही था। बाद में आंध्रप्रदेश को विजित कर ये आंध्र शासक* कहलाए। अशोक
के उपरांत ही इनकी शक्ति में विस्तार हुआ।
*सातवाहनों की उत्पत्ति तथा मूल निवास स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद
है । पुराणों ने इस वंश के संस्थापक सिमुक को ‘आन्ध्र-भृत्य’ तथा ‘आन्ध्रजातीय’
कहा गया है, जबकि अपने अभिलेखों में इस वंश के राजाओं ने अपने को सातवाहन ही कहा है ।
आंध्र भ्रुत्य इस शब्द के आधार पर कुछ इतिहासकारो ने सातवाहनों को आंध्र प्रदेश का
समझ लिया था लेकिन आंध्र भृत्य इसका मतलब आंध्र प्रदेश से नहीं है। सातवाहन मूलरूप
से महाराष्ट्र के पुणे के पास अंदर मावल क्षेत्र के थे इस क्षेत्र में इंद्रायणी
नाम की नदी बहती है और इसी के किनारे पर बसे हुए क्षेत्र को आज अंदर मावल कहते
हैं। इसी इंद्रायणी नदी का पुराना नाम आंध्रायनी था और सातवाहनो का राज्य इसी
आंध्रायनी नदी के किनारे था उनकी पहली राजधानी जीर्णनगर यानी आज का जुन्नर शहर थी।
तो इसी आंध्रायनी नदी के किनारे बसने के कारण सातवाहनों को आंध्रभ्रुत्य कहां गया
है। आंध्र प्रदेश से उसका संबंध नही है आंध्र प्रदेश तक सातवाहन साम्राज्य का
विस्तार बाद में हुआ था। लेकिन उनके शुरुवाती सिक्के शिलालेख सभी महाराष्ट्र पुणे
जुन्नर के पास मिलते हैं।
सिमुक ( ई0पू0 230 से ई0पू0 207 )
: वायु पुराण
में इसे सिधुक अथवा शिप्रक कहा गया है। इसने आंध्र ( मौर्य काल में ) मृत्य , रठिक एवं भेज को विजित कर अपना
प्रभुत्व विदिशा के निकटवर्ती क्षेत्रों तक बढ़ा लिया। गोदावरी तट पर प्रतिष्ठान (पैठन)
इसकी ‘ पूर्वी राजधानी ’ तथा कृष्णा नदी तट पर ‘ पश्चिमी राजधानी ’ धान्यकटक बनाई।
अंतिम कण्व शासक सुशर्मा की हत्या कर राजा बना।
शक , सिमुक के प्रबल प्रतिद्वंद्वी
थे। शक शासकों ( क्षत्रपों ) ने इससे मालवा ,
नासिक व
दक्षिणपथ के प्रदेश छीन लिए। प्रारंभ में सिमुक धर्म सहिष्णु था किन्तु अंतिम
दिनों में जैनों पर भयंकर अत्याचार किए अतः इसे पद च्युत कर मार डाला गया।
कृष्णा या कान्ह ( ई0पू0 207 से ई0पू0 189 ) : यह सिमुक का भाई था। इसने नासिक
को पुनः अपने प्रभाव में लिया तथा इसके महामात्य श्रमण ने नासिक में गुहा निर्माण
कराया।
शातकर्णि प्रथम ( ई0पू0 189 से ई0पू0 179) : पुराणों के अनुसार यह कृष्णा का
पुत्र था। इसने महाराष्ट्र के महारठी की पुत्री नागनिका या नयनिका से विवाह किया
जिससे महाराष्ट्र पर इसका प्रभुत्व हो गया। ‘‘ पेरीप्लस ऑफ एरीथीन सी ’’ नामक
पुस्तक में इसका नाम का उल्लेख प्राप्त होता है। पत्नी नागनिका द्वारा उत्कंटित
नानाघाट अभिलेख ( महाराष्ट्र ) में इसे सिमुक वंश का धन , दक्षिणापति तथा अप्रजिहत चक्र
कहा गया है। हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसका सामना कलिंग राज खारवेल
से हुआ था। खारवेल ने इसे मूसिक नगर में परास्त किया था। शातकर्णि प्रथम के प्रमुख
शिल्पी वाशिष्ठिपुत्र आनंद ने साँची स्तूप के तोरण द्वार पर इसके लेख खुदवाए। इसका
राज्य मालवा , कोकण ,नर्मदा घाटी , विदर्भ तथा गुजरात तक हो गया
था। इसकी मृत्यु के उपरांत रानी नागनिका
ने अपने पुत्रों शक्ति श्री एवं वेदि श्री की संरक्षिका के रूप में शासन किया।
शातकर्णि प्रथम के उत्तराधिकारी
- पूर्णोथंगा (ल. 179–161 ई.पू.)
- शातकर्णी (ल. 179–133 ई.पू.)
- लम्बोदर सातवाहन (ल. 87–67 ई.पू.)
- हाला (ल. 20–24 ई.)
- मंडलाक (ल. 24–30 ई.)
- पुरिन्द्रसेन (ल. 30–35 ई.)
- सुंदर शातकर्णी (ल. 35–36 ई.)
- काकोरा शातकर्णी (ल. 36 ई.)
- महेंद्र शातकर्णी (ल. 36–65 ई.)
शातकर्णि प्रथम की मृत्यु के उपरांत सातवाहनों का
अंधकार युग प्रारंभ होता है। कई उत्तराधिकारी हुए इनमें 17 वां शासक हाल ( काव्य नाम ) हुआ
जो कवि एवं साहित्यकार था इसने गाथासप्तशती नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके समकालीन
गुणाढ्य ने वृहत्कथा की रचना की। इसके बाद क्षहरात वंश के शासक नहपान ने
महाराष्ट्र पर आधिपत्य कर लिया। हाल के सेनापति विजयानंद ने लंका पर विजय प्राप्त
की तथा हाल ने वहां के शासक की पुत्री लीलावती से विवाह किया।
गौतमी पुत्र शातकर्णि ( ई0 106 से ई0 130 ) : यह सातवाहनों का सबसे शक्तिशाली
शासक था। इसके महान कार्यों का उल्लेख इसकी माँ गौतमी बालाश्री ने अपने लेख नासिक
प्रशस्ति में किया है। प्रशस्ति के अनुसार इसने ‘‘ क्षत्रियों के दर्प एवं मान को
पद दलित कर अपरांत ( कोंकण ) , सौराष्ट्र , आकर-अवन्ति ( मालवा ) अनुप-कुकर
( मालवा ) पर अपना आध्पित्य स्थापित किया। जोगलथम्बी के रजत सिक्कों के पुनरांकन
से ज्ञात होता है कि इसने क्षहरात वंशी शक शासक नहपान को बेलाग परास्त किया। गौतमी
बालाश्री ने अपने इस पुत्र को त्रिसमुद्र तोय पितावाहन कहा है।नासिक जिले में
वेणुकटक नामक नगर की स्थापना कर वेणुकटक स्वामी का विरूद धारण किया। स्वयं को ‘‘
एक ब्रम्हान ’’ कहने वाला यह शासक वर्ण संकर जाति विरोधी होने पर भी धर्म सहिष्णु
था। नासिक के निकट ‘ पाण्डुलेन ’ में गुफा निर्माण कर ईसवी 124 में दान की। याज्ञवल्क्य स्मृति
इसी काल में लिखी गई। संभवतः भारत का आइंसटीन नागार्जुन इसका समकालीन था। ईसवी 130 में अपाहिज होने के उपरांत इसकी
मृत्यु हो गई।
वाषिष्ठि पुत्र पुलुमायी ( ई0 130 से ई0 154 ) :
पुराणों में
इसे पुलोमा शातकर्णि कहा गया है। इसको
प्रथम आंध्र शासक कहा जाता है। क्योंकि उत्तर भारत शकों द्वारा छीन लिये जाने पर (
क्योंकि गौतमी पुत्र शातकर्णि अपाहिज हो गया था अतः शक प्रबल हो गए थे। ) पुलुमायी
ने आंध्र प्रदेश विजय ( दक्षिण भारत ) को पूर्ण किया। शक क्षत्रप रूद्र दामन की
पुत्री से स्वयं विवाह कर वैमनस्यता दूर करने का क्षीण प्रयास किया। कोरोमण्डल से
प्राप्त इसकी मुद्राएं इसके नौ सैनिक एवं व्यापारिक विकास को दर्शाती हैं। पुलोमा
ने नवलगढ़ ( नवनगर ) की स्थापना की तथा अमरावती के स्तूप का पुनरोत्थान किया। इसके
नाम का उल्लेख टॉलेमी ने अपने ग्रंथ में किया है। चष्टन के नेतृत्व में हुए शक
हमले में उत्तर पश्चिम के क्षेत्र से हाथ धोना पड़ा। इसने महाराज एवं दक्षिणापथेश्वर
की उपाधि ली।
यज्ञ श्री शातकर्णि ( ई0 169 से ई0 194 ) :
यह अंतिम
योग्य शासक था। इसने शकों को परास्त करके कोंकण जीत लिया। इसने शकों की भँति रजत
मुद्रा चलाई जिनमें उत्कीर्ण पोत चित्र इसकी नौ सैनिक शक्ति के परिचायक हैं। इसकी
मृत्यु सन 194 ईस्वी में हो गई।
सातवाहनों का विघटन : तीसरी शताब्दी के मध्य तक
सातवाहन राज्य टुकड़ों में बँट कर नष्ट हो गया। पुलुमायी तृतीय इस वंश का अंतिम
शासक था। सातवाहन के विघटन होने पर ईश्वरदास के नेतृत्व में महाराष्ट्र के आभीर
स्वतंत्र हो गए। पूर्व में इक्ष्वाकु तथा दक्षिण में पल्लव प्रभावशाली हो गए।
कालान्तर में दक्षिण भारत में वाकाटक वंश ने सातवाहनों के समान प्रतिष्ठा प्राप्त
की।
सातवाहन प्रशासन
शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था किन्तु शासक ( प्रायः
) राजा के दैवीय सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते थे। ये अपनी तुलना भीम , अर्जुन , राम तथा कृष्ण आदि से करते थे।
शासन की सुविधा की दृष्टि से राज्य को दो भागों में विभक्त कर दिया गया था। पश्चिमी
घाट के ऊपर महारथी तथा उत्तरी घाट के ऊपर कोंकण पर महाभोज शासन करते थे। ये
क्षेत्र जनपदों व जनपद , आहारों ( जिला ) में विभक्त थे।
प्रमुख अधिकारी ‘ अमात्य ’ कहलाते। जो आहारों के प्रधान थे। प्रमुख सातवाहन
पदाधिकारी निम्नलिखित हैं। राजामात्य : जो राजा की सेवा में रहते , महामात्य : विशेष कार्यों की पूर्ति हेतु
नियुक्त , भण्डागारिक : भण्डार का प्रधान , हेरनिका : राज्य का खजांची , लेखक : राज्य का सचिव , महासेनापति : सैन्य प्रधान। नगरों में ‘
निगम ’ तथा ग्रामों में ‘ ग्राम सभाएं ’ प्रशासक थीं। गौल्मिक या ग्रामिक , ग्राम प्रधान होता था। जो एक
सैन्य टुकड़ी का भी प्रधान होता था। अभिलेखों के अनुसार शान्ति एवं सुरक्षा हेतु
आहारों में कटक ( छावनी ) होती थी।
जागीरदारी प्रथा : ई0पू0 पहली सदी के एक अभिलेख से ज्ञात
होता है कि संभवतया जागीरदारी प्रथा के जनक सातवाहन शासक थे। यह प्रथा सातवाहनों
द्वारा ब्राम्हण को प्रदत्त कर मुक्त ग्राम के रूप में प्रारंभ हुईं इसमें उन
ग्रामों के प्रशासनिक अधिकार भी स्वामी ब्राम्हण को दे दिए जाते थे। कृषि योग्य
भूमि राज्य संरक्षण में तैयार की जाती थी।
सामाजिक दशा : जातीय आधार पर चार वर्ग थे
किन्तु आर्थिक आधार पर भी समाज के चार वर्ग थे।
1. जनपद और आहार के अधिकारी
2. अमात्य , श्रेष्ठि एवं व्यापारी
3. वैद्य , किसान एवं लेखक
4. जुलाहे एवं बढ़ई आदि।
अमरावती अभिलेख संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा
सामूहिक दान करना बताता है। स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी थी। अंर्तजातीय विवाह ,वैदेशिक जाति से विवाह प्रचलित
था। विदेश यात्रा मान्य थी। व्यवसाय के आधार पर जाति परिवर्तन संभव था।
आर्थिक दशा : मुख्य व्यवसाय कृषि , व्यापार एवं शिल्प था। भड़ौंच
अंर्तराष्ट्रीय बंदरगाह के अलावा कल्याण ,
सोपारा
मुख्य बंदरगाह थे। सोपारा , कान्हेरी , कल्याण , पैठन , टगरा , जुनार कार्ले एवं गोवर्धन प्रमुख
व्यापारिक केन्द्र थे। जबकि वैजयंती , नासिक एवं जुनार आदि आन्तरिक
व्यापार के केन्द्र थे। रोम समांट आगस्टस के समय ( 30 ई0पू0
) से दक्षिण
भारत एवं रोम का व्यापार आरंभ था। इस व्यापार में मिश्र एवं अरब व्यापारी मध्यस्थ
होते थे। भारत-रोम व्यापार में भारत को होने वाले लाभ का वर्णन प्लिनी ने किया है।
भू राजस्व की दर 1/6 थी। इसके अलावा मनक व्यापार पर
एकाधिपत्य आदि आय के प्रमुख स्त्रोत थे। वस्तुतः आय का महत्वपूर्ण स्त्रोत बाह्य
व्यापार ही था। व्यापारिक संघ ‘ श्रेणी ’ व प्रधान ‘ श्रेष्ठि ’ होता था । श्रेणी
का कार्यालय निगम सभा तथा व्यापारिक नियम श्रेणी धर्म कहलाते। सातवाहनों के सिक्के
सीसे ( अधिकांश ), पोटीन , ताम्र एवं कांस्य के होते थे।
कार्षापण, रजत एवं ताम्र मुद्रा थी। पूर्वी
दक्कन के पत्तन , कान्टकोस्सील , कोंदृदूर , अल्लोसिंगे और पश्चिमी तट के
पत्तन बेरीगाजा , कल्याण एवं सोपारा थे।
धार्मिक दशा : ब्राम्हण धर्म के अनुयायी
होते हुए भी सातवाहन शासक धर्म सहिष्णु थे। बौद्ध धर्म भी दक्षिण में लोकप्रिय था।
दक्षिण भारत की भिक्षु निवास हेतु निर्मित प्रायः सभी गुफाएं सातवाहन शासकों
द्वारा निर्मित हैं। कृष्णा ने भिक्षुओं की सुविधा हेतु नासिक में एक महामात्र की
नियुक्ति की। नासिक की गुफा क्रमांक - 2 को गौतमी बालाश्री ने भद्रायन
भिक्षु संघ को दान में दी। कार्ले की गुफा का निर्माण वषिष्ठि पुत्र ने महासांघिक
के लिए कराया था। जैन धर्म का प्रसार दक्षिण भारत में ई0पू0
400
के लगभग हो गया था। जब जैन संत भद्रबाहु ने दक्षिण भारत की ओर रूख किया।
भाषा साहित्य : सातवाहनों के लेख महाराष्ट्री
प्राकृत भाषा में हैं। जो उनकी राजकीय भाषा थी। गुणाढ्य की वृहत्कथा , पैशाची भाषा में लिखित है। एक
अन्य अज्ञात व्यक्ति ने राजा हाल के विवाह पर लीलावती परिणय नामक रचना की। राजा
हाल को संस्कृत सिखाने के उद्देश्य से शिववर्मन ने ‘‘ का तंत्र ’’ की रचना की। हाल
की पत्नी ‘ मलयवती ’ संस्कृत की विदुषी थी।
कला एवं स्थापत्य : मूर्ति कला की अमरावती शैली के
विकास में सातवाहनों का योगदान था। भाजा,
कोण्डाने, पीतलरवोरा, अजन्ता ,वेडसा , नासिक , जुनार कार्ले एवं कान्हेरी में
चैत्य गृह बनवाए। कार्ले चैत्य गृह का निर्माण वैजयंती के श्रेष्ठि भूतपाल ने
कराया था।
स्मरणीय तथ्य :
· गौतमीपुत्र शातकर्णि ने वर्ण
संकरता रोकने के लिए वर्णाश्रम का कठोरता से पालन कराया।
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धन्यवाद
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